ज़माना ख़राब है चापलूसों के भी आने लगे, लोग, अब रहनुमा बन के
मगर जिसकी कमर झुकी चापलूसी मैं, वो क्या चले बेचारा अब तन के
जिसके रहमो करम पे बन रही है थोड़ी बहुत साख उसकी इधर उधर
कैसे निकाले, घर कर चुकी नस नस मैं चापलूसी जो, वो बेचारा मन से
बेइज़्ज़ती को ही अब चापलूसी का सच्चा वाला प्रसाद मान बैठा है वो
फिर अब बेइज़्ज़ती और इज़्ज़त का अंतर कोई कैसे समझाए उसको। .
मगर जिसकी कमर झुकी चापलूसी मैं, वो क्या चले बेचारा अब तन के
जिसके रहमो करम पे बन रही है थोड़ी बहुत साख उसकी इधर उधर
कैसे निकाले, घर कर चुकी नस नस मैं चापलूसी जो, वो बेचारा मन से
बेइज़्ज़ती को ही अब चापलूसी का सच्चा वाला प्रसाद मान बैठा है वो
फिर अब बेइज़्ज़ती और इज़्ज़त का अंतर कोई कैसे समझाए उसको। .
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