Wednesday, 28 May 2025

 जब कोई सोच चुका हो कि तुम्हारे बस में कुछ है ही नहीं, और तुम उसकी दया पर हो —

वहीं सबसे उपयुक्त समय होता है यह दिखाने का कि वो कितना गलत सोच रहा है।
हो सकता है कुछ दिन कठिनाइयों से गुजरने पड़े,
लेकिन उसके बाद जो भी होगा, वह तुम्हारा निर्णय होगा, और वो भविष्य उज्जवल ही होगा।

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥"

(भगवद्गीता 2.47)
अर्थात: केवल कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं।

इसलिए यह बार-बार, प्रत्यक्ष रूप से ना सही, परोक्ष रूप से जताते रहना कि “हम ही तुम्हारे रहनुमा हैं” —
ये आत्मसम्मान को धीरे-धीरे नष्ट करता है।

उससे बेहतर है
एक कठिन निर्णय,
थोड़ा कष्ट,
लेकिन पूर्ण स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता कदम।

"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥"

(भगवद्गीता 6.5)
अर्थ: मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं अपने को ऊपर उठाए, और स्वयं को नीचे ना गिराए।

यह जीवन तुम्हारा है —
और जब तक तुम अपनी सीमाओं को दूसरों की सोच से बाँधते रहोगे,
तब तक तुम अपने भीतर के शिव या शक्ति को पहचान नहीं पाओगे।

कुछ समय की तकलीफ, जीवनभर की गुलामी से कहीं बेहतर है।

"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।"
(भगवद्गीता 3.5)
अर्थ: कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म के नहीं रह सकता।

इसलिए निर्णय लो —
साहस के साथ,
सम्मान के साथ,
और उस चुप्पी को तोड़ दो,
जो तुम्हारे आत्मबल को दबा रही है।

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