हम अक्सर कई बार दबा-दबा महसूस करते हैं —
कभी अपनी परिस्थितियों की वजह से,
तो कभी अपने अच्छेपन की वजह से।
हम चुप रहते हैं, क्योंकि हम टकराव नहीं चाहते।
हम सहते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि शायद यही सही है।
मगर क्या कभी सोचा है —
कि हमारी यह चुप्पी ही हमें धीरे-धीरे मिटा रही होती है?
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।"
(भगवद्गीता 3.35)
अर्थ: अपने दोषयुक्त धर्म का पालन करना, दूसरे के गुणयुक्त धर्म के पालन से बेहतर है।
हम अपने "अच्छेपन" को सीढ़ी बना लेते हैं,
जिस पर लोग चढ़ते हैं, और हमें नीचे छोड़ जाते हैं।
मगर अच्छा होना और मूर्खता में चुप रह जाना – दो अलग बातें हैं।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥"
(भगवद्गीता 4.7)
अर्थ: जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ।
यह श्लोक सिर्फ भगवान की नहीं, हमारी भी जिम्मेदारी बताता है —
कि जब बात आत्मसम्मान की हो,
तो हमें भी अपने भीतर के "विष्णु" को जगाना होगा।
अपने अच्छेपन को ताकत बनाओ, कमजोरी नहीं।
जो सही है, उसके लिए खड़े रहो —
चाहे तुम्हारी आवाज कांपे, या दिल थरथराए।
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः"
(उपनिषद्)
अर्थ: यह आत्मा (स्वतंत्रता, आत्मज्ञान) निर्बल व्यक्ति को प्राप्त नहीं होती।
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