काफ़ी मशरूफ़ ज़िंदगी ने जो वक़्त दिया फ़ुर्सत का,
बड़े इत्मीनान से लिखूंगा
अपनी आरज़ुएँ — जो की तो थीं , मगर जी नहीं कभी.
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